Cast Politics Of BJP
नई दिल्ली। विकास पुरुष की छवि वाले और वाईब्रेंट गुजरात प्रणेता श्री नरेंद्र मोदी जी आजकल कुछ बदले बदले नज़र आने लगे हैं। अबतक भाजपा और नरेंद्र मोदी अपनी सभाओं में विकसित गुजरात का हवाला देते हुए देश के विकास पर ज़ोर देते थे। लेकिन अब वो भी बांकी क्षेत्रिय पार्टी के नेताओं की तरह सोशल इंजीनियरिंग में फंस गए हैं। दरअसल नरेंद्र मोदी का नया चेहरा सामने आते ही देश का युवा हैरान-परेशान है और सोचने पर मजबूर हो गया है कि क्या ये वही मोदी हैं जो राष्ट्रवाद और विकासवाद कि बात करते थे? आखिर ऐसा क्या हो गया है इन्हें कि राष्ट्रवाद, विकासवाद छोड़ कर जातिवाद, पिछड़ावाद की बात करने लगे? बिहार और यूपी में हुए इनकी सभाओं पर अगर नज़र डाले तो इसका उदाहरण साफ़-साफ़ दिखाई देगा। हाल ही में भाजपा की बिहार के मुजफ्फरपुर में हुई रैली पर गौर करें तो पता चलेगा कि मोदी का मिज़ाज़ बिलकुल बदल चूका है। मोदी ने वहाँ मंच से अपने भाषण में कहा कि "भाजपा को लोग ब्राम्हण और बनियों की पार्टी समझते थे, लेकिन अब ये पार्टी पिछड़ों की पार्टी हो गयी है। मै पिछड़ा का बेटा हूं , मेरी मां बर्तन धोने का काम करती थी, मैं चाय बेचता था और अब भाजपा ब्राहमण और बनियो की पार्टी नही रही हमारे साथ रामविलास पासवान जी है भाई चिराग है उपेन्द्र कुशवाहा है।" आखिर ऐसा क्या हो गया इन्हे कि मंच से ये बात कभी न बोलने वाले मोदी आजकल सिर्फ जातिवाद की ही बात करते हैं।
मोदी के इस बयान ने युवाओं को सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या देश वापस उसी 40-50 साल पहले वाले भारत की तरफ जा रहा है। अगर भाजपा को इसी सोशल इजीनियरिंग की ही बात करनी है तो इसमें लालू और नीतीश बुरे हैं क्या? दरअसल देश के युवा का मोदी से जुड़ने का मकसद था, नया भारत निर्माण, राष्ट्रवाद और एक विकसित भारत जो इस जात-पात और सम्प्रदायवाद से अलग हो। लेकिन ये क्या मोदी भी उसी रास्ते पर चल पड़े हैं। सब जानते हैं कि 'देश में मोदी की ज़बरदस्त लहर है, भाजपा के आकलन के हिसाब से अकेले पार्टी 230-240 सीटों पर कब्ज़ा जमा सकती है। देश की अधिकतम जनता मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहती है, देश में चारों तरफ सिर्फ नमो-नमो ही है।' लेकिन चुनाव जैसे-जैसे करीब आ रहा है भाजपा नेताओं के तमाम दावों की हवा निकलती जा रही है। इसका अहसास भाजपा के सभी थिंक टैंक को हो चूका है तभी यूपी और बिहार की सभाओं में विकास के मुद्दे पर जातिवाद का मुद्दा हावी होने लगा है।
इन्ही सोशल इजीनियरिंग का बैलेंस बनाने के लिए कल्याण सिंह को रातोंरात पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष घोषित कर दिया गया। परिवारवादी, अवसरवादी और जातिवादी राजनीति के प्रतिक माने जाने वाले रामविलास पासवान और उपेन्द्र कुशवाहा से हाथ मिला रहे हैं। नागमणी साधु यादव, रणवीर यादव जैसे नेताओं को लाने कि तैयारी चल रही है। फिर टिकट में अधिक से अधिक पिछड़े और अति पिछड़े वर्ग कि हिस्सेदारी हो इसके लिए जद यू और राजद के पिछड़े और अति पिछड़े, दलित नेता को पार्टी में शामिल करने कि रणनीति पर काफी तेजी से काम चल रहा है। सहरसा, पूर्णिया और गया की रैली में इस तरह की राजनीति और भी खुलकर सामने आ जायेगी। वैसे राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि भाजपा को कही यह दाव उलटा ना पड़ जाये। क्यूंकि भाजपा इस खेल में माहिर नही है और हो सकता है कि इस चक्कर में इनका जनाधार वोट ही ना की खिसकने लगे। दरअसल इस तरह के खेल में मायावती, मुलायम, लालू और नीतीश कुमार बहुत बड़ी डिग्री हासिल है और इस खेल में इन्हे परास्त करना आसान नही है।वही इस खेल से युवा वोटर ठगा ठगा महसूस करने लगा है और इस खेल से निराश है जिसका प्रभाव वोटिंग प्रतिशत पर भी दिख सकता है।
कहा जाता है कि शतरंज का सबसे काबिल और होशियार खेलाड़ी वो होता है जो सामने वाले खिलाड़ी को अपने जैसे खेल खेलने को मजबूर कर देता है। या फिर इसको इस तरीके से समझे कि हम जिस दाव के माहिर खिलाड़ी है, सामने वालो को उसी दाव को खेलने के लिए ऐसी परिस्थिति बना दे कि वो मजबूर हो जाये या फिर सामने वाले खेलाड़ी को लगने लगे है इसी दाव से खेल जीता जा सकता है। बस यही हो रहा है आजकल भाजपा के साथ और इस कारण से बिहार के दो लोग बेहद सकून में हैं। वो अपनी नैतिक जीत तो मान ही चुके हैं और इसी कड़ी मे निराश बिहार के सवर्ण मतदाताओ को लुभाने के लिए नये दाव पर काम भी शुरु कर भी दिया है। राजद कांग्रेस के साथ गठबंधन हो जाये इसके लिए अब लालू कुछ भी देने को तैयार हो गए हैं सिर्फ शर्त यही है कि ज्यादा से ज्यादा सर्वण उम्मीदवार को टिकट दे। यही काम नीतीश ने भी शुरु कर दिया है। सीपीआई और सीपीएम को वैसी सीट दी जा रही है जहां इन पार्टियो के सवर्ण उम्मीदवार चुनाव जीतते रहे हैं। लालू भूमिहार को पहली बार दो तीन टिकट देने कि तैयारी में और कांग्रेस को ब्राम्हण उम्मीदरवार को अधिक से अधिक सीट देने कि सलाह दे रहा है।
अब देखना यह है कि सोशल इनजीनियरिंग के इस नये खेल में उंट किस करवट लेता है इस खेल के माहिर लालू और नीतीश औंधे मुंह गिरते हैं या फिर भाजपा का बिहार से सुपरा साफ होता है क्योकि स्थिति आर पार वाली बनती जा रही है या फिर भाजपा के लिए कहीं माया मिली ना राम वाली स्थिति ना कही हो जाये।
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